नीतीश कुमार ने बुधवार (26 जुलाई) को बिहार की महागठबंधन सरकार के सीएम पद से इस्तीफा दे दिया। सूत्र बताते हैं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के रवैये से उनकी पार्टी के अंदर कई विधायकों और सांसदों में गहरी नाराजगी है। सूत्रों पर भरोसा करें तो 71 विधायकों वाली जेडीयू के करीब 20 विधायक और 12 में से 6 सांसद पार्टी आलाकमान से खफा हैं और नीतीश कुमार के एनडीए में शामिल होने की दशा में वो पार्टी से बगावत कर नई पार्टी बना सकते हैं। ऐसे कयास को इन बातों से बल भी मिलता है।
पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र में कमी: 04 अक्टूबर 2016 को जेडीयू अध्यक्ष बने नीतीश कुमार पर पार्टी के भीतरी लोकतंत्र को खत्म करने के आरोप लगने लगे हैं। कुछ नेता दबी जुबान से कहते हैं कि जब तक शरद यादव पार्टी अध्यक्ष थे, तब तक लोग पार्टी फोरम पर अपनी बात खुले तौर पर रखते थे लेकिन नीतीश के अध्यक्ष बनते ही वह आजादी खत्म सी हो गई है। नीतीश जो चाहतें हैं, वही होता है। पार्टी एक व्यक्ति की पसंद-नापसंद का अड्डा बन गया है। इसकी बानगी उप राष्ट्रपति उम्मीदवार तय करने के मौके पर भी दिखी, जब 18 विपक्षी दलों की बैठक में सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने शरद यादव से पूछा कि जो आप कह रहे हैं वो आपकी राय है या पार्टी की। मतलब साफ है कि पार्टी के अंदर से लेकर बाहर तक यह बात फैल चुकी है कि नीतीश कुमार पार्टी के अंदर मनमर्जी करते हैं या फिर उनका स्टैंड अलग होता है|
मंत्री पद का लालच: माना जा रहा है कि जेडीयू के 20 विधायक जिनमें अधिकांश मुस्लिम-यादव हैं लालू यादव के संपर्क में हैं। उन्हें भरोसा है कि महागठबंधन टूटने की स्थिति मेंं वे अलग होकर राजद और कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार बनवा सकते हैं और मंत्री पद पा सकते हैं। बता दें कि 243 सदस्यों वाली बिहार विधान सभा में राजद के 80, कांग्रेस के 27 और जेडीयू के 20 बागी विधायक मिल जाएं तो यह आंकड़ा 127 तक चला जाता है जो बहुमत के आंकड़े (122) से पांच ज्यादा है। दल-बदल कानून के प्रावधानों से बचने के लिए जदयू के बागियों के सामने चार और विधायकों को जोड़ने की चुनौती होगी, पर सत्ता के लालच में यह मुश्किल नहीं होगा।
राजनीतिक भविष्य की चिंता: जेडीयू के जिन 20 विधायकों के बारे में कहा जा रहा है कि वो बगावत कर सकते हैं। उनके सामने राजनीतिक पृष्ठभूमि और भविष्य की चिंता ज्यादा अहम है। साल 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में उनकी जीत में जिन राजनीतिक समीकरणों ने अहम भूमिका निभाई, वे समीकरण नीतीश के एनडीए में शामिल होते ही राजद के पाले में चली जाएगी। लिहाजा, इन विधायकों की जीत उस समीकरण के बिना नहीं हो सकती। इसलिए वो जेडीयू से बगावत कर ना केवल अपना राजनीतिक भविष्य सुरक्षित कर सकेंगे बल्कि भविष्य के गठबंधनों के लिहाज से वो स्वतंत्र भी होंगे।
सीट बंटवारे का पेंच: 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में महागठबंधन के दलों के बीच जो सीटों का बंटवारा हुआ है, उसमें कई ऐसे विधायक हैं जो राजद के कैडर रहे हैं लेकिन सीट शेयरिंग की वजह से वो जनता दल यूनाइटेड के टिकट पर विधानसभा पहुंचे हैं। ऐसे में अगर बिहार में सियासी समीकरण और सियासी घटनाक्रम बदलता है तो लालू के पुराने सिपाही जेडीयू को छोड़ने में तनिक भी संकोच किए बिना लालू के साथ कभी भी खड़े हो सकते हैं। ध्यान देने वाली बात है कि इनमें से अधिकांश नेता या तो यादव हैं या मुस्लिम या फिर पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखते हैं।
लालू का सियासी दम: बीजेपी-आरएसएस विरोध, पिछड़े वर्ग खासकर यादवों के एकमात्र छत्रप नेता और सामाजिक न्याय के तथाकथित स्थापित पुरोधा की छवि वाले लालू यादव को बिहार की मौजूदा सियासत हीरो बनाए हुई है, तभी तो तमाम आरोपों के बावजूद उनकी पार्टी अभी भी लोकप्रिय बनी हुई है। ऐसे में अगर नीतीश कुमार ने भगवा रंग के साथ फिर से दोस्ती की तो जनमानस के बीच बरकरार लालू की यही लोकप्रियता नीतीश पर ना सिर्फ हावी होगा बल्कि उनके लिए खतरा भी साबित हो सकती है।
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